वेदांत : अब दर्द कैसा है .. खाना खा लिया..??
मैंने ना में सर हिला दिया..
वेदांत : आ जा ! मैं भी अकेला हूँ ! साथ में खाते हैं...
मैंने लंच उठाया और उसकी क्लास में चली गई.. हमने पहली बार साथ लंच किया... वो बड़ा ही मासूम लग रहा था.. जाने वो क्या था.. वो मेरा उसकी तरफ होने वाला अबोध .. निष्पाप, निष्काम, पहला आकर्षण...आज भी दिल में महसूस होता है...!!!
हमारा अब रोज का यही हो गया.. बस में होम वर्क कॉपी करना और साथ में लंच करना... हमारी दोस्ती जो बस यूँ ही शुरू हुई थी और प्रगाढ़ होने लगी... अब वो मुझे अपनी कक्षा के किस्से-कहानियाँ लंच में सुनाता... किसने किसको चांटा मारा, किसने किसकी स्कर्ट खींची, किसने किसे प्रोपोज किया, किसने अध्यापिका को पेन मारा.. वगैरा-वगैरा..
हम लंच के दौरान उसकी कक्षा की बातें किया करते थे और बस में मेरी कक्षा की..
बस इसी तरह साल से भी ज्यादा गुज़र गया हम आठवीं में पहुँच गए...
एक बार अचानक खाते-खाते उसने मुझसे पूछा- यह ब्रा क्या होती है...???
आसपास की सभी लड़कियाँ मेरी तरफ देखने लगी...
और मुझे भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दूँ.. और कैसे दूँ जो इसे समझ आ जाये और अश्लील भी न लगे..
मैंने उत्तर दिया- ब्रा एक तरह की बनियान होती है... अब और कुछ मत पूछियो इससे ज्यादा मुझे भी नहीं पता...
वो बोला- इतना भड़क क्यों रही है..? तेरे से पैसे थोड़े ही मांगे हैं...
मैंने भी बात टाल दी..!!
हमारी इतनी गहरी दोस्ती.. अब सबकी नज़रों में खलने लगी थी.. उसकी कक्षा के बच्चे और मेरी कक्षा के बच्चे अब हमारे बारे में बातें बनाने लगे थे.... सबको लगता था कि हम दोनों प्रेमी हैं... मुझे भी मेरी क्लास की लड़कियाँ उसके नाम से चिढ़ाती थी.. खैर मुझे बुरा नहीं लगता था.. क्यूंकि अब मैं भी उसकी तरफ मन ही मन आकर्षित होने लगी थी... उसे देखना.. उससे बात करना.. उसके साथ समय बिताना अच्छा लगता था.. और फिर वो उम्र ही ऐसी थी... दूसरे लिंग के प्रति आकर्षण स्वाभाविक था...!!
पर लोगों का हमारे बारे में बातें बनाना उसे बुरा लगता था.. उसका स्वच्छ, काम-रहित मन.. उसे वो सब गन्दी बातें सुनने की और झेलने की इजाज़त नहीं देता था.. इसीलिए उसे गुस्सा आता था.. कि सब हमारी साफ़ सुथरी दोस्ती को गन्दी और गलत नज़रों से देखते हैं.. मुझसे उसके चेहरे की वो परेशानी वाली लकीरें देखी नहीं जाती थी.. माथे पे पसीना.. आँखों में आग... जैसे किसी को अभी मार डालेगा...ऐसे में मेरे मन में एक तरकीब सूझी..मैं जब शाम को उससे मिलने गई..
तो...
वेदांत : आ गई तू.. यह ले होमवर्क मैंने कर लिया अब तू भी पूरा कर ले..
मैं : मेरा मन नहीं है.. तू ही कर देना कल सुबह बस में.... अच्छा सुन.. आज तू इतना गुस्से में क्यों था..(मुझे तो मन ही मन पता था कि वो गुस्से में क्यों है... क्यूंकि उसकी क्लास में मेरे और भी कई दोस्त थे... वो सब मुझे भी चिढ़ाते थे..)
वेदांत : कुछ नहीं रे, बस ऐसे ही... क्लास के बच्चे आजकल कुछ ज्यादा ही बकवास करने लगे हैं...हम दोनों के बारे में ! कुछ भी बोलते रहते हैं..!!
"क्या बोलते हैं..??"
वेदांत : कभी पूछते हैं... बात आगे कहाँ तक बढ़ी... अरे... तू किसी और लड़की से बात मत करना वरना वो जल-भुन जाएगी.. और पता नहीं क्या क्या..
उसकी आँखों में फिर से वही ज्वालामुखी सा गुस्सा उबाल मारने लगा...
मैं : तू टेंशन मत ले ! शांत हो जा.. मैं कुछ करती हूँ..
वेदांत : क्या करेगी तू..? यह अफवाह अगर फैलते फैलते घर तक पहुँच गई तो..? जो परेंट्स हम पे इतना भरोसा करते हैं... वो हमें एक दूसरे से बात भी नहीं करने देंगे..और तो और वो समझेंगे भी नहीं कि यह सिर्फ दोस्ती है... और इससे ज्यादा कुछ नहीं...
मैं इस बात से परेशान नहीं थी की घरवालों को पता चला तो क्या होगा.. मैं इस बात से परेशान थी.. कि यदि यह सब बातें सुन कर.. और इतना सब सोच कर कहीं उसने मुझसे दूर कर लिया तो....?
मैं : तू थोड़ी देर शांत हो.. मुझे सोचने तो दे...
मेरी बात काटते हुए ...वो बीच में बड़बड़ाने लगा।
मैं चिल्ला के : तू चुप करेगा.. प्लीज..
थोड़ी देर सोचने के बाद मेरे दिमाग में एक खुराफाती ख्याल आया..
मैं : वेदांत क्यों न हम अपने खाने की जगह बदल दें..
वेदांत : और कहाँ खायेंगे...?? तेरे सर पे...?
मैं: तू न ज़रा ठण्ड रख... सुन.. हमारे स्कूल में तीन मुख्य हाल हैं... एक है प्रार्थना हाल, दूसरा साक्षात्कार हाल और तीसरा क्रियाकलाप हाल..
वेदांत : हैं तो.. इसमें क्या नया है....काम की बात बोल...!!!
मैं: तो मैं सोच रही हूँ कि प्रार्थना और साक्षात्कार हाल, प्रधानाचार्य के कक्ष के सामने हैं और तीसरा क्रियाकलाप हाल उनके कक्ष के ठीक पीछे... ऐसे में वहाँ पर कोई बच्चा नहीं फटकता...तो हम क्या करेंगे कि.. मैं बस में ही तुझे अपना लंच दे दूंगी.. बेल बजते ही तू क्रियाकलाप हाल में अपना और मेरा खाना लेकर पहुँच जाना ! मैं बेल बजते ही वह आ जाऊँगी.. कोई पूछेगा लंच करने को तो कह दूगी आज कल वज़न ठीक रखने के लिए मैं दोपहर में खाना नहीं खाती...
वेदांत : जब तुम्हें खाना खाना नहीं है तो क्यों ले के आओगी...मैं क्या अकेले हाल में जा के खाऊंगा...!!
मैं: उफ्फ्फ ये लड़का... बस तू मुझसे कोई सवाल मत कर .. कल देखते जाना... और हाँ अब हम क्लास के दौरान भी कम ही मिला करेंगे...
वेदांत उदास हो गया..
मैं : ये तू न बड़ा इमोशनल अत्याचार करता है.. ठीक है मिल लेंगे..झुरमुट कहीं का...!!!
मुझे उन दिनों नाम बिगाड़ने और नए बनाने की बड़ी गन्दी आदत लग गई थी जो आज तक नहीं छूटी....
खैर.. अब हम रोज़ हाल में खाना खाने लगे..
अब हमारे सहपाठियों को और मौका मिल गया बोलने का... अब कक्षा में हमारे अलग होने की चर्चा होने लगी.. हमारा सबके सामने एक दूसरे से बात न करना उनकी इस सोच का कारण था.. परन्तु हमारे पास भी कोई विकल्प नहीं था...
वैसे हाल में अकेले में सिर्फ और सिर्फ उसके साथ रहना और बातें करना मुझे बेहद लुभाता था.. धीरे धीरे इसी तरह हम बड़े होने लगे समय बीतने लगा... समय के साथ उसका कद 4 फुट से 5 फुट हो गया.. आँखों में चमक... शरारत भरी कातिलाना मुस्कान से वो अपनी कक्षा की कई लड़कियों के दिलों पर राज करने लगा...यहाँ तक कि हमारे अलग होने की खबर के कुछ ही महीनों बाद उसे एक लड़की ने एक प्रेम पत्र लिखा.. उसमें किसी का नाम नहीं था.. शायद उसने ऐसा पहले इसीलिए नहीं किया क्यूंकि मैं उसके साथ हर समय रहती थी... और हमारे प्रेम संबंधों की अफवाह से सभी लड़कियाँ उससे दूर भागती थी और मुझे भी कोई लड़का आंख उठा कर नहीं देखता था...
उसके लिए यह एक मौका था और दोस्त बनाने का.. पर हमारी बातें सिर्फ हम तक ही रहती थी... कोई भी बात चाहे वो यौन क्रीड़ाओं से सम्बंधित हो या फिर, नंगी साइटों से, या नंगी फिल्में हों हम सब कुछ आपस में बाँटते थे.. साथ देखने की हिम्मत अभी तक नहीं थी...
उसी दौरान उसकी दादी का देहांत हो गया वो तीन दिन तक स्कूल नहीं आया...
सभी मुझसे पूछते थे.. चूँकि वो मेरे घर के सामने रहता था.. मैं जानते हुए भी कुछ नहीं बोलती थी... कि वो क्यों नहीं आ रहा.. मैं उन्हें और कोई बात बनाने का मौका नहीं देना चाहती थी...
पहले दिन शाम को जब स्कूल से घर पहुँची तो मम्मी ने बताया- वो लड़का है न, वो तो रोया ही नहीं... सब रो रहे थे.. पर उसकी आँखों में एक भी आंसू नहीं था...
कह के मम्मी नहाने चलीं गईं...
मम्मी ने तो मुझे परेशानी में डाल दिया था.. मैं उसके घर नहीं जा सकती थी.... बच्चो का ऐसे मौके पे जाना मना होता है....!!
तीन दिन बाद उससे बस में मिली... वो बेहद शांत, चुपचाप था... मैंने उसका ध्यान दूसरी ओर करने की कोशिश की..
मैं: तू तीन दिन से स्कूल नहीं आया .. ला अपनी नोटबुक दे.. मैं लिख देती हूँ...
वेदांत ने कुछ प्रतिक्रिया नहीं दी...
मैं : अच्छा सुन मेरे दिमाग में एक मस्त खुराफाती तरकीब आई है इस होमवर्क नाम के कीटाणु से निपटने की..
उसका इस पर भी कोई जवाब नहीं आया.. पर मैंने अपनी बात कहनी जारी रखी : तरकीब यह है कि हम दोनों एक ही कॉपी पर दो कवर चढ़ाएंगे एक पर तेरा नाम होगा और दूसरे पर मेरा.. जब तेरी क्लास होगी तो तू मेरा कवर उतारकर नीचे कर देना और मेरी होगी तो मैं तेरा कवर उतार कर नीचे कर दूंगी इस तरह कक्षा में दोनों का कार्य भी होता रहेगा.. और पता भी नहीं चलेगा.. पर तू कवर को टेप या गोंद से चिपका मत देना..!!!
वो अब भी कुछ नहीं बोला.. शायद उसने सुना ही नहीं था..
मैं : तू सुन रहा है कि नहीं .. ओह सुन ले...!! चल छोड़ तू अपनी कॉपी दे...
काफी देर उसके सामने हाथ बढ़ाये रखने के बाद भी जब उसने मुझे कॉपी नहीं दी तो...
मैं झल्लाते हुए : दे ना..!!!
क्या है..?
देता क्यों नहीं...!!! किस्मत वालों को मुझसे काम करवाने का मौका मिलता है और तू अपने ही ख्यालों में खोया है...!!!
वेदांत : तू कभी अपने मम्मी-दादी से दूर हुई है....??
उसके सीधे से सवाल में उसकी उदासी की नमी थी....!!!
मैं कुछ नहीं बोली..
एक अजीब सी ख़ामोशी छा गई, एक सवाल ने हम दोनों के बीच की तीन दिन की दूरियों को खाई में बदल दिया...
दादी भले ही उसकी माँ के दूर होने के बाद .. उसकी देखभाल के लिए आईं थीं .. पर वो कभी उसकी माँ की जगह नहीं ले सकी... शायद यही वजह थी कि दादी के जाने के बाद .. उसकी आँखों से आँसू नहीं निकले.. बात चाहे कुछ भी हो.. कोई चाहे हमें कितना भी प्यार .. दुलार कर ले.. पर माँ की कमी तो सिर्फ माँ ही पूरी कर सकती है.. बच्चे के दिल में उसकी जो जगह होती है .. वो कोई नहीं ले सकता.. और न वो माँ वाला प्यार उसे कोई दे सकता है.. माँ डांटती भी है तो भी उसमें प्यार झलकता है.. पिता चाहे दूसरी माँ ले आए, या खुद माँ बनकर प्यार देना चाहे.. पर बच्चा जब माँ की कोख में होता है.. उनका रिश्ता वहीं से बनना शुरू हो जाता है.. पिता का अस्तित्व तो बच्चे के पैदा होने के बाद आता है.. जबकि माँ का अस्तित्व भ्रूण के बनने से लेकर आजीवन रहता है...
मैं अपने मन के द्वंद्व में खो गई थी.. कि अचानक फिर वो ही सवाल मेरे कानो में गूंजने लगा...
क्या तुम कभी अपनी मम्मी-डैडी से दूर हुई हो..??
उसकी सवाल करती नज़रें मेरे भीतर सूई सी गड़ी जा रहीं थी...
मैंने एक साधारण सा जवाब दिया... " कोई बात नहीं... होता है.. मैं समझ सकती हूँ .!!!"
वेदांत : सबके साथ नहीं होता..मेरे साथ ही हुआ है.. तू नहीं समझ सकती न ही कभी समझ पायेगी.. तेरे पास सब हैं..!!!
वो बस में दूसरी जगह पर जा बैठा..
थोड़ी देर बाद स्कूल भी आ गया.. सभी बच्चे बस से उतरने लगे, मैं अपनी जगह पर खड़ी उसका उसकी सीट से हिलने का इंतज़ार कर रही थी..
धीरे धीरे बस खाली होने लगी.. अंत में मैं और वो ही बस में रह गए.. कंडक्टर भैया आए और उन्होंने हमें उतरने को कहा....
वो चुप था.. उसकी गर्दन झुकी हुई.. नज़रें जैसे जमीन में गड़े जा रहीं हो...!!!
मैं : मुझे पता है तेरा स्कूल जाने का मन नहीं है.. मेरा भी नहीं है.....!! चल कहीं घूमने चलते हैं...!!! क्या बोलता है...??
उसने नज़रें उठा, मेरी बड़ी सी नटखट आँखों में देखा...
मैंने उसका हाथ पकड़ा और स्कूल के अन्दर जाने की बजाये बस स्टैंड ले गई...
उसने कोई विरोध नहीं किया... मूक बना मेरी और देखता रहा और चलता रहा ..
मैं उसे बस में बता कर एक सिनेमा हाल ले गई... वह फिल्म लगी थी.." मैं हूँ ना"
मैंने पॉकेट मनी निकाली और दो टिकट ले लिए..
फिल्म 11 बजे शुरू होनी थी...मैं उसे एक उद्यान में ले गई... वहाँ कई लोग सैर कर रहे थे.. प्रेमी जोड़े छिप छिप के बैठे एक दूसरे का आलिंगन कर रहे थे..
उसका चेहरा तब भी उतरा हुआ था.. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं कैसे उसे ठीक करूँ...
मुझे फिर वही तरकीब याद आ गई...
उद्यान में सामने ही काँटों वाला पौधा था, उस पर गुलाबी रंग के फूल लगे थे...
मैं फूल तोड़ने गई.. और जान बूझ कर काँटों में हाथ दे दिया...
मैं : आ उच्च ...सी सी....
कांटा पौधे से उखड़ मेरी हथेली में घुस गया था.. खून निकल रहा था.. पर मैंने भी फूल हाथ से नहीं छोड़ा...
जब मेरे इस कारनामे पर भी उसका ध्यान नहीं गया तो मैंने उन्हीं रक्त भरे हाथों से उसके सामने फूल कर दिया...
यह काम कर गया...
उसकी नज़र फूल से पहले मेरी हथेली पर गई...
उसने झट से मेरे हाथ से फूल छुडा कर फेंक दिया... मेरे हाथ थाम कर हथेली को अपने हाथ पर रख दूसरे हाथ से कांटा निकालने लगा..
वेदांत: दर्द तोह नहीं हो रही.. क्यों करती है तू ऐसे.. ???
मैं उसी को देख रही थी...
मैं: तू क्यों करता है ऐसे..???
वेदांत : कम से कम तेरी तरह खुद को नुक्सान नहीं पहुंचाता..
मैं: खुद को नुकसान नहीं पहुँचाता परन्तु औरों को पहुँचाता है.. तेरे ना बोलने से बात न करने से... मैं कितनी अकेली हो जाती हूँ, कभी सोचा है तूने...??
वेदांत अभी भी मेरी बात नहीं सुन रहा था.. बस ज़ख्म देख उसे सहला रहा था...
अचानक तेज़ी से उसने पानी की बोतल निकाली, मेरे हाथ धुलाए....और बोला.. "चल अब बैठ जा आराम से.. थोड़ी देर में फिल्म का समय होने वाला है... लंच कर लेते हैं.. अंदर खाने पीने की वस्तुएँ ले जाना मना है..."
तब जाकर तो मेरी जान में जान आई..
हम फिल्म देखने हाल में पहुँचे.. कि कुछ समय बाद माँ-बेटे का भावनात्मक जुड़ाव और.. रोना धोना देख उसकी आखें भी भर आईं...
उसने मेरे कंधे पर सर रख लिया.. मेरा चोट वाला हाथ हाथों में ले लिया...
वेदांत : माँ ने भी मुझे छोड़ दिया.. और अब दादी भी चलीं गईं ... तू तो नहीं छोड़ के जाएगी ना मुझे..???
वो बहुत व्यथित था.. उसकी आवाज़ में दर्द और गले में कुण्ठा थी... वो रो रहा था... मैंने दूसरे हाथ से उसके चेहरे को छुआ.. गाल गीले थे...
मैंने उसके आँसू पौंछ दिए..
मैं: नहीं जाऊँगी..पर तू भी वादा कर... मुझसे बात करनी बंद नहीं करेगा...!?
उसने मेरे चोट वाले हाथ पे हाथ रख दिया और मैंने भी उसके दूसरे पर दूसरा हाथ रख दिया..
वेदांत : वादा ..!?
मैं: वादा..!!!
मैं खुश थी.. वो अब पहले से कुछ ठीक था...!!!
इंटरवल में फुल्ले खाकर और फिल्म देख कर हम बाहर निकले, बस पकड़ी और घर चले गए..
उस दिन मेरे मन में अपार संतुष्टि थी...!!!
कुछ पलों के लिए इस प्रेम कथा को द्वितीय विराम देते हैं !
आपको क्या लगता है.. मेरा एकतरफा आकर्षण क्या प्रेम का रूप लेगा.. क्या मेरे प्रेम को वेदान्त कभी स्वीकार कर पायेगा.. हमारे यौवन की तरफ बढ़ते कदम क्या उम्र से पहले कहीं बहक तो नहीं जायेंगे.. जानने के लिए पढ़ें
मैंने ना में सर हिला दिया..
वेदांत : आ जा ! मैं भी अकेला हूँ ! साथ में खाते हैं...
मैंने लंच उठाया और उसकी क्लास में चली गई.. हमने पहली बार साथ लंच किया... वो बड़ा ही मासूम लग रहा था.. जाने वो क्या था.. वो मेरा उसकी तरफ होने वाला अबोध .. निष्पाप, निष्काम, पहला आकर्षण...आज भी दिल में महसूस होता है...!!!
हमारा अब रोज का यही हो गया.. बस में होम वर्क कॉपी करना और साथ में लंच करना... हमारी दोस्ती जो बस यूँ ही शुरू हुई थी और प्रगाढ़ होने लगी... अब वो मुझे अपनी कक्षा के किस्से-कहानियाँ लंच में सुनाता... किसने किसको चांटा मारा, किसने किसकी स्कर्ट खींची, किसने किसे प्रोपोज किया, किसने अध्यापिका को पेन मारा.. वगैरा-वगैरा..
हम लंच के दौरान उसकी कक्षा की बातें किया करते थे और बस में मेरी कक्षा की..
बस इसी तरह साल से भी ज्यादा गुज़र गया हम आठवीं में पहुँच गए...
एक बार अचानक खाते-खाते उसने मुझसे पूछा- यह ब्रा क्या होती है...???
आसपास की सभी लड़कियाँ मेरी तरफ देखने लगी...
और मुझे भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दूँ.. और कैसे दूँ जो इसे समझ आ जाये और अश्लील भी न लगे..
मैंने उत्तर दिया- ब्रा एक तरह की बनियान होती है... अब और कुछ मत पूछियो इससे ज्यादा मुझे भी नहीं पता...
वो बोला- इतना भड़क क्यों रही है..? तेरे से पैसे थोड़े ही मांगे हैं...
मैंने भी बात टाल दी..!!
हमारी इतनी गहरी दोस्ती.. अब सबकी नज़रों में खलने लगी थी.. उसकी कक्षा के बच्चे और मेरी कक्षा के बच्चे अब हमारे बारे में बातें बनाने लगे थे.... सबको लगता था कि हम दोनों प्रेमी हैं... मुझे भी मेरी क्लास की लड़कियाँ उसके नाम से चिढ़ाती थी.. खैर मुझे बुरा नहीं लगता था.. क्यूंकि अब मैं भी उसकी तरफ मन ही मन आकर्षित होने लगी थी... उसे देखना.. उससे बात करना.. उसके साथ समय बिताना अच्छा लगता था.. और फिर वो उम्र ही ऐसी थी... दूसरे लिंग के प्रति आकर्षण स्वाभाविक था...!!
पर लोगों का हमारे बारे में बातें बनाना उसे बुरा लगता था.. उसका स्वच्छ, काम-रहित मन.. उसे वो सब गन्दी बातें सुनने की और झेलने की इजाज़त नहीं देता था.. इसीलिए उसे गुस्सा आता था.. कि सब हमारी साफ़ सुथरी दोस्ती को गन्दी और गलत नज़रों से देखते हैं.. मुझसे उसके चेहरे की वो परेशानी वाली लकीरें देखी नहीं जाती थी.. माथे पे पसीना.. आँखों में आग... जैसे किसी को अभी मार डालेगा...ऐसे में मेरे मन में एक तरकीब सूझी..मैं जब शाम को उससे मिलने गई..
तो...
वेदांत : आ गई तू.. यह ले होमवर्क मैंने कर लिया अब तू भी पूरा कर ले..
मैं : मेरा मन नहीं है.. तू ही कर देना कल सुबह बस में.... अच्छा सुन.. आज तू इतना गुस्से में क्यों था..(मुझे तो मन ही मन पता था कि वो गुस्से में क्यों है... क्यूंकि उसकी क्लास में मेरे और भी कई दोस्त थे... वो सब मुझे भी चिढ़ाते थे..)
वेदांत : कुछ नहीं रे, बस ऐसे ही... क्लास के बच्चे आजकल कुछ ज्यादा ही बकवास करने लगे हैं...हम दोनों के बारे में ! कुछ भी बोलते रहते हैं..!!
"क्या बोलते हैं..??"
वेदांत : कभी पूछते हैं... बात आगे कहाँ तक बढ़ी... अरे... तू किसी और लड़की से बात मत करना वरना वो जल-भुन जाएगी.. और पता नहीं क्या क्या..
उसकी आँखों में फिर से वही ज्वालामुखी सा गुस्सा उबाल मारने लगा...
मैं : तू टेंशन मत ले ! शांत हो जा.. मैं कुछ करती हूँ..
वेदांत : क्या करेगी तू..? यह अफवाह अगर फैलते फैलते घर तक पहुँच गई तो..? जो परेंट्स हम पे इतना भरोसा करते हैं... वो हमें एक दूसरे से बात भी नहीं करने देंगे..और तो और वो समझेंगे भी नहीं कि यह सिर्फ दोस्ती है... और इससे ज्यादा कुछ नहीं...
मैं इस बात से परेशान नहीं थी की घरवालों को पता चला तो क्या होगा.. मैं इस बात से परेशान थी.. कि यदि यह सब बातें सुन कर.. और इतना सब सोच कर कहीं उसने मुझसे दूर कर लिया तो....?
मैं : तू थोड़ी देर शांत हो.. मुझे सोचने तो दे...
मेरी बात काटते हुए ...वो बीच में बड़बड़ाने लगा।
मैं चिल्ला के : तू चुप करेगा.. प्लीज..
थोड़ी देर सोचने के बाद मेरे दिमाग में एक खुराफाती ख्याल आया..
मैं : वेदांत क्यों न हम अपने खाने की जगह बदल दें..
वेदांत : और कहाँ खायेंगे...?? तेरे सर पे...?
मैं: तू न ज़रा ठण्ड रख... सुन.. हमारे स्कूल में तीन मुख्य हाल हैं... एक है प्रार्थना हाल, दूसरा साक्षात्कार हाल और तीसरा क्रियाकलाप हाल..
वेदांत : हैं तो.. इसमें क्या नया है....काम की बात बोल...!!!
मैं: तो मैं सोच रही हूँ कि प्रार्थना और साक्षात्कार हाल, प्रधानाचार्य के कक्ष के सामने हैं और तीसरा क्रियाकलाप हाल उनके कक्ष के ठीक पीछे... ऐसे में वहाँ पर कोई बच्चा नहीं फटकता...तो हम क्या करेंगे कि.. मैं बस में ही तुझे अपना लंच दे दूंगी.. बेल बजते ही तू क्रियाकलाप हाल में अपना और मेरा खाना लेकर पहुँच जाना ! मैं बेल बजते ही वह आ जाऊँगी.. कोई पूछेगा लंच करने को तो कह दूगी आज कल वज़न ठीक रखने के लिए मैं दोपहर में खाना नहीं खाती...
वेदांत : जब तुम्हें खाना खाना नहीं है तो क्यों ले के आओगी...मैं क्या अकेले हाल में जा के खाऊंगा...!!
मैं: उफ्फ्फ ये लड़का... बस तू मुझसे कोई सवाल मत कर .. कल देखते जाना... और हाँ अब हम क्लास के दौरान भी कम ही मिला करेंगे...
वेदांत उदास हो गया..
मैं : ये तू न बड़ा इमोशनल अत्याचार करता है.. ठीक है मिल लेंगे..झुरमुट कहीं का...!!!
मुझे उन दिनों नाम बिगाड़ने और नए बनाने की बड़ी गन्दी आदत लग गई थी जो आज तक नहीं छूटी....
खैर.. अब हम रोज़ हाल में खाना खाने लगे..
अब हमारे सहपाठियों को और मौका मिल गया बोलने का... अब कक्षा में हमारे अलग होने की चर्चा होने लगी.. हमारा सबके सामने एक दूसरे से बात न करना उनकी इस सोच का कारण था.. परन्तु हमारे पास भी कोई विकल्प नहीं था...
वैसे हाल में अकेले में सिर्फ और सिर्फ उसके साथ रहना और बातें करना मुझे बेहद लुभाता था.. धीरे धीरे इसी तरह हम बड़े होने लगे समय बीतने लगा... समय के साथ उसका कद 4 फुट से 5 फुट हो गया.. आँखों में चमक... शरारत भरी कातिलाना मुस्कान से वो अपनी कक्षा की कई लड़कियों के दिलों पर राज करने लगा...यहाँ तक कि हमारे अलग होने की खबर के कुछ ही महीनों बाद उसे एक लड़की ने एक प्रेम पत्र लिखा.. उसमें किसी का नाम नहीं था.. शायद उसने ऐसा पहले इसीलिए नहीं किया क्यूंकि मैं उसके साथ हर समय रहती थी... और हमारे प्रेम संबंधों की अफवाह से सभी लड़कियाँ उससे दूर भागती थी और मुझे भी कोई लड़का आंख उठा कर नहीं देखता था...
उसके लिए यह एक मौका था और दोस्त बनाने का.. पर हमारी बातें सिर्फ हम तक ही रहती थी... कोई भी बात चाहे वो यौन क्रीड़ाओं से सम्बंधित हो या फिर, नंगी साइटों से, या नंगी फिल्में हों हम सब कुछ आपस में बाँटते थे.. साथ देखने की हिम्मत अभी तक नहीं थी...
उसी दौरान उसकी दादी का देहांत हो गया वो तीन दिन तक स्कूल नहीं आया...
सभी मुझसे पूछते थे.. चूँकि वो मेरे घर के सामने रहता था.. मैं जानते हुए भी कुछ नहीं बोलती थी... कि वो क्यों नहीं आ रहा.. मैं उन्हें और कोई बात बनाने का मौका नहीं देना चाहती थी...
पहले दिन शाम को जब स्कूल से घर पहुँची तो मम्मी ने बताया- वो लड़का है न, वो तो रोया ही नहीं... सब रो रहे थे.. पर उसकी आँखों में एक भी आंसू नहीं था...
कह के मम्मी नहाने चलीं गईं...
मम्मी ने तो मुझे परेशानी में डाल दिया था.. मैं उसके घर नहीं जा सकती थी.... बच्चो का ऐसे मौके पे जाना मना होता है....!!
तीन दिन बाद उससे बस में मिली... वो बेहद शांत, चुपचाप था... मैंने उसका ध्यान दूसरी ओर करने की कोशिश की..
मैं: तू तीन दिन से स्कूल नहीं आया .. ला अपनी नोटबुक दे.. मैं लिख देती हूँ...
वेदांत ने कुछ प्रतिक्रिया नहीं दी...
मैं : अच्छा सुन मेरे दिमाग में एक मस्त खुराफाती तरकीब आई है इस होमवर्क नाम के कीटाणु से निपटने की..
उसका इस पर भी कोई जवाब नहीं आया.. पर मैंने अपनी बात कहनी जारी रखी : तरकीब यह है कि हम दोनों एक ही कॉपी पर दो कवर चढ़ाएंगे एक पर तेरा नाम होगा और दूसरे पर मेरा.. जब तेरी क्लास होगी तो तू मेरा कवर उतारकर नीचे कर देना और मेरी होगी तो मैं तेरा कवर उतार कर नीचे कर दूंगी इस तरह कक्षा में दोनों का कार्य भी होता रहेगा.. और पता भी नहीं चलेगा.. पर तू कवर को टेप या गोंद से चिपका मत देना..!!!
वो अब भी कुछ नहीं बोला.. शायद उसने सुना ही नहीं था..
मैं : तू सुन रहा है कि नहीं .. ओह सुन ले...!! चल छोड़ तू अपनी कॉपी दे...
काफी देर उसके सामने हाथ बढ़ाये रखने के बाद भी जब उसने मुझे कॉपी नहीं दी तो...
मैं झल्लाते हुए : दे ना..!!!
क्या है..?
देता क्यों नहीं...!!! किस्मत वालों को मुझसे काम करवाने का मौका मिलता है और तू अपने ही ख्यालों में खोया है...!!!
वेदांत : तू कभी अपने मम्मी-दादी से दूर हुई है....??
उसके सीधे से सवाल में उसकी उदासी की नमी थी....!!!
मैं कुछ नहीं बोली..
एक अजीब सी ख़ामोशी छा गई, एक सवाल ने हम दोनों के बीच की तीन दिन की दूरियों को खाई में बदल दिया...
दादी भले ही उसकी माँ के दूर होने के बाद .. उसकी देखभाल के लिए आईं थीं .. पर वो कभी उसकी माँ की जगह नहीं ले सकी... शायद यही वजह थी कि दादी के जाने के बाद .. उसकी आँखों से आँसू नहीं निकले.. बात चाहे कुछ भी हो.. कोई चाहे हमें कितना भी प्यार .. दुलार कर ले.. पर माँ की कमी तो सिर्फ माँ ही पूरी कर सकती है.. बच्चे के दिल में उसकी जो जगह होती है .. वो कोई नहीं ले सकता.. और न वो माँ वाला प्यार उसे कोई दे सकता है.. माँ डांटती भी है तो भी उसमें प्यार झलकता है.. पिता चाहे दूसरी माँ ले आए, या खुद माँ बनकर प्यार देना चाहे.. पर बच्चा जब माँ की कोख में होता है.. उनका रिश्ता वहीं से बनना शुरू हो जाता है.. पिता का अस्तित्व तो बच्चे के पैदा होने के बाद आता है.. जबकि माँ का अस्तित्व भ्रूण के बनने से लेकर आजीवन रहता है...
मैं अपने मन के द्वंद्व में खो गई थी.. कि अचानक फिर वो ही सवाल मेरे कानो में गूंजने लगा...
क्या तुम कभी अपनी मम्मी-डैडी से दूर हुई हो..??
उसकी सवाल करती नज़रें मेरे भीतर सूई सी गड़ी जा रहीं थी...
मैंने एक साधारण सा जवाब दिया... " कोई बात नहीं... होता है.. मैं समझ सकती हूँ .!!!"
वेदांत : सबके साथ नहीं होता..मेरे साथ ही हुआ है.. तू नहीं समझ सकती न ही कभी समझ पायेगी.. तेरे पास सब हैं..!!!
वो बस में दूसरी जगह पर जा बैठा..
थोड़ी देर बाद स्कूल भी आ गया.. सभी बच्चे बस से उतरने लगे, मैं अपनी जगह पर खड़ी उसका उसकी सीट से हिलने का इंतज़ार कर रही थी..
धीरे धीरे बस खाली होने लगी.. अंत में मैं और वो ही बस में रह गए.. कंडक्टर भैया आए और उन्होंने हमें उतरने को कहा....
वो चुप था.. उसकी गर्दन झुकी हुई.. नज़रें जैसे जमीन में गड़े जा रहीं हो...!!!
मैं : मुझे पता है तेरा स्कूल जाने का मन नहीं है.. मेरा भी नहीं है.....!! चल कहीं घूमने चलते हैं...!!! क्या बोलता है...??
उसने नज़रें उठा, मेरी बड़ी सी नटखट आँखों में देखा...
मैंने उसका हाथ पकड़ा और स्कूल के अन्दर जाने की बजाये बस स्टैंड ले गई...
उसने कोई विरोध नहीं किया... मूक बना मेरी और देखता रहा और चलता रहा ..
मैं उसे बस में बता कर एक सिनेमा हाल ले गई... वह फिल्म लगी थी.." मैं हूँ ना"
मैंने पॉकेट मनी निकाली और दो टिकट ले लिए..
फिल्म 11 बजे शुरू होनी थी...मैं उसे एक उद्यान में ले गई... वहाँ कई लोग सैर कर रहे थे.. प्रेमी जोड़े छिप छिप के बैठे एक दूसरे का आलिंगन कर रहे थे..
उसका चेहरा तब भी उतरा हुआ था.. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं कैसे उसे ठीक करूँ...
मुझे फिर वही तरकीब याद आ गई...
उद्यान में सामने ही काँटों वाला पौधा था, उस पर गुलाबी रंग के फूल लगे थे...
मैं फूल तोड़ने गई.. और जान बूझ कर काँटों में हाथ दे दिया...
मैं : आ उच्च ...सी सी....
कांटा पौधे से उखड़ मेरी हथेली में घुस गया था.. खून निकल रहा था.. पर मैंने भी फूल हाथ से नहीं छोड़ा...
जब मेरे इस कारनामे पर भी उसका ध्यान नहीं गया तो मैंने उन्हीं रक्त भरे हाथों से उसके सामने फूल कर दिया...
यह काम कर गया...
उसकी नज़र फूल से पहले मेरी हथेली पर गई...
उसने झट से मेरे हाथ से फूल छुडा कर फेंक दिया... मेरे हाथ थाम कर हथेली को अपने हाथ पर रख दूसरे हाथ से कांटा निकालने लगा..
वेदांत: दर्द तोह नहीं हो रही.. क्यों करती है तू ऐसे.. ???
मैं उसी को देख रही थी...
मैं: तू क्यों करता है ऐसे..???
वेदांत : कम से कम तेरी तरह खुद को नुक्सान नहीं पहुंचाता..
मैं: खुद को नुकसान नहीं पहुँचाता परन्तु औरों को पहुँचाता है.. तेरे ना बोलने से बात न करने से... मैं कितनी अकेली हो जाती हूँ, कभी सोचा है तूने...??
वेदांत अभी भी मेरी बात नहीं सुन रहा था.. बस ज़ख्म देख उसे सहला रहा था...
अचानक तेज़ी से उसने पानी की बोतल निकाली, मेरे हाथ धुलाए....और बोला.. "चल अब बैठ जा आराम से.. थोड़ी देर में फिल्म का समय होने वाला है... लंच कर लेते हैं.. अंदर खाने पीने की वस्तुएँ ले जाना मना है..."
तब जाकर तो मेरी जान में जान आई..
हम फिल्म देखने हाल में पहुँचे.. कि कुछ समय बाद माँ-बेटे का भावनात्मक जुड़ाव और.. रोना धोना देख उसकी आखें भी भर आईं...
उसने मेरे कंधे पर सर रख लिया.. मेरा चोट वाला हाथ हाथों में ले लिया...
वेदांत : माँ ने भी मुझे छोड़ दिया.. और अब दादी भी चलीं गईं ... तू तो नहीं छोड़ के जाएगी ना मुझे..???
वो बहुत व्यथित था.. उसकी आवाज़ में दर्द और गले में कुण्ठा थी... वो रो रहा था... मैंने दूसरे हाथ से उसके चेहरे को छुआ.. गाल गीले थे...
मैंने उसके आँसू पौंछ दिए..
मैं: नहीं जाऊँगी..पर तू भी वादा कर... मुझसे बात करनी बंद नहीं करेगा...!?
उसने मेरे चोट वाले हाथ पे हाथ रख दिया और मैंने भी उसके दूसरे पर दूसरा हाथ रख दिया..
वेदांत : वादा ..!?
मैं: वादा..!!!
मैं खुश थी.. वो अब पहले से कुछ ठीक था...!!!
इंटरवल में फुल्ले खाकर और फिल्म देख कर हम बाहर निकले, बस पकड़ी और घर चले गए..
उस दिन मेरे मन में अपार संतुष्टि थी...!!!
कुछ पलों के लिए इस प्रेम कथा को द्वितीय विराम देते हैं !
आपको क्या लगता है.. मेरा एकतरफा आकर्षण क्या प्रेम का रूप लेगा.. क्या मेरे प्रेम को वेदान्त कभी स्वीकार कर पायेगा.. हमारे यौवन की तरफ बढ़ते कदम क्या उम्र से पहले कहीं बहक तो नहीं जायेंगे.. जानने के लिए पढ़ें