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यौन सुख

यौन सुख
प्रेषिका : कुमुदा
मुझे गलत मत समझना ! मुझे अपने अपने बच्चों से प्यार है। पति के पास पुरखों की काफ़ी जायदाद है और हमें किस चीज़ की कोई कमी नहीं है।
मेरे पास सब है जो मैं चाहती हूँ, बस यौन सुख के अलावा !
मैं छब्बीस साल की हूँ। सात साल पहले जब मेरी शादी मनोज से हुई तो ससुराल में मेरे पति के अलावा मेरे ससुर जी कुलभूषण ही थे।
आज परिवार में मैं, मेरे पति मनोज, मेरा छोटा सा बेटा पल्ल्व और एक बेटी नताशा हैं। ससुर जी का देहांत हो चुका है।
मेरे पिताजी का परिवार बहुत ग़रीब था। चार बहनों में से मैं सबसे बड़ी संतान थी। मेरी माँ लम्बी बीमारी के बाद मर गई। तब मैं सोलह साल की थी। माँ के इलाज के लिए पिताजी ने क्या कुछ नहीं किया। ढेर सारा कर्ज़ा हो गया। पिताजी रेवेन्यू ऑफिस में क्लर्क की नौकरी करते थे। इनकी आमदनी से मुश्किल से गुज़ारा होता था। मैं छोटे-मोटे काम कर लेती थी। आमदनी का और कोई साधन नहीं था कि हम कर्ज़ा चुका सकें। लेनदार लोग तकाज़े करते रहते थे। फिक्र से पिताजी की सेहत भी बिगड़ने लगी थी। ऐसे में मेरे सम्भावित ससुर कुलभूषण ने मदद दी। उनका इकलौता बेटा मनोज कुँवारा था। दिमाग़ से थोड़ा सा पिछड़ा होने के कारण उसे कोई कन्या नहीं देता था। कुलभूषण की पत्नी भी छः माह पहले ही मर चुकी थी। घर सँभालने वाली कोई नहीं थी। उन्होंने जब कर्ज़ के बदले में मेरा हाथ माँगा तो पिताजी ने तुरन्त ना बोल दी। मैं हाईस्कूल तक पढ़ी हुई थी। आगे कॉलेज में पढ़ने वाली थी। मेरे जैसी लड़की कैसे मनोज जैसे लड़के के साथ ज़िन्दगी गुज़ार सकेगी?
इस पर मैंने पिताजी से कहा,”आप मेरी फिक्र मत कीजिए। मेरी तीनों बहनों की सोचिए। आप रिश्ता मंज़ूर कर लीजिए, और सिर पर से कर्ज़ का बोझ दूर कीजिए। मैं सँभाल लूँगी।”
अपने हृदय पर पत्थर रख कर पिताजी ने मुझे मनोज से ब्याह दिया। तब मैं 19 साल की थी। मैं ससुराल में आई। पहले ही दिन ससुरजी ने मुझे पास बिठा कर कहा: “देख बेटी, मैं जानता हूँ कि मनोज से शादी करके तूने बड़ा बलिदान दिया है। मैंने तेरे पिताजी का कर्ज़ा पूरा करवा दिया है। लेकिन तूने जो किया है उसकी क़ीमत पैसों में नहीं गिनी जा सकती। तूने तेरे पिताजी पर और साथ ही मुझ पर भी बड़ा उपकार किया है।”
मैंने कहा,”पिताजी…”
उन्होंने मुझे बोलने नहीं दिया। कहने लगे: “पहले मेरी सुन ले। बाद में कहना… जो तेरा जी चाहे… ठीक है? तू मेरी बेटी बराबर है। ख़ैर, मुझे साफ़-साफ़ बताना पड़ेगा।”
उन्होंने नज़रें फिरा लीं और कहा,”मैंने मनोज का वो देखा है, मुझे विश्वास है कि वो तेरे साथ शारीरिक सम्बन्ध बना सकेगा और बच्चा पैदा कर सकेगा। मेरी यह विनती है कि तू ज़रा सब्र से काम लेना, जैसी ज़रूरत पड़े वैसी उसे मदद करना।”
यह सब सुनकर मुझे शरम आती थी। मेरा चेहरा लाल हो गया था और मैं उनसे नज़रें नहीं मिला पा रही थी। मैंने कुछ न कहा।
वो आगे बोले,”तुम्हारी सुहागरात परसों है, आज नहीं। मैं तुम्हें एक क़िताब देता हूँ, पढ़ लेना। सुहागरात पर काम आएगी। और मुझसे शरमाना मत, मैं तेरा पिता जैसा ही हूँ।”
मुझसे नज़रें चुराते हुए उन्होंने मुझे किताब दी और चले गए। किताब कामशास्त्र की थी। मैंने ऐसी किताब के बारे में सुना था लेकिन कभी देखी नहीं थी। किताब में चुदाई में लगे जोड़ों के चित्र थे। मैं ख़ूब जानती थी कि चुदाई क्या होती है, लंड क्या होता है, छुटना क्या है इत्यादि। फिर भी चित्रों को देखकर मुझे शरम आ गई। इन में से कई तस्वीरें तो ऐसी थी जिनके बारे में मैंने तो कभी सोचा तक ना था। एक चित्र में औरत ने लंड मुँह में लिया हुआ था। छिः छिः, इतना गंदा? दूसरे में उसी औरत की चूत आदमी चाट रहा था। एक में आदमी का पूरा लंड औरत की गाँड में घुसा हुआ दिखाया था। कई चित्रों में एक औरत दो-दो आदमी से चुदवाती दिखाई थी। ये देखने में मैं इतनी तल्लीन हो गई कि कब मनोज कमरे में आए, वो मुझे पता ना चला। आते ही उसने मुझे पीछे से मेरे आँखों पर हाथ रख दिया और बोले,”कौन हूँ मैं?”
मैंने उनकी कलाईयाँ पकड़ लीं और बोली,”छोड़िए, कोई देख लेगा।”
मुझे छोड़कर वह सामने आए और बोले: क्या पढ़ती हो? कहानियों की किताब है?”
अब मेरे लिए समस्या हो गई कि उन्हें वह किताब मैं कैसे दिखाऊँ। किताब छुपा कर मैंने कहा,”हाँ, कहानियों की किताब है। रात में आपको सुनाऊँगी।”
खुश होकर वो चला गया। कितना भोला था! उसकी जगह कोई दूसरा होता तो मुझे छेड़े बिना नहीं जाता। दो दिन बाद मैंने देखा कि लोग मनोज की हँसी उड़ा रहे थे। कोई-कोई भाभी कहती: देवरजी, देवरानी ले आए हो, तो उनसे क्या करोगे?
उनके दोस्त कहते थे: भाभी गरम हो जाए और तेरी समझ में न आए तो मुझे बुला लेना।
एक ने तो सीधा पूछा: मनोज, चूत कहाँ होती है, वो पता है?
मुझे उन लोगों की मज़ाक पसन्द ना आई। अब मैं ससुरजी के दिल का दर्द समझ सकी। मुझे उन दोनों पर तरस भी आया। मैंने निर्णय किया कि मैं बाज़ी अपने हाथ में लूँगी, और सबकी ज़ुबान बन्द कर दूँगी, चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े।
तीसरी रात सुहागरात थी। मेरी उम्र के दो रिश्ते की ननदों ने मुझे सजाया-सँवारा और शयनकक्ष में छोड़ दिया। दूसरी एक चाची मनोज को ले आई और दरवाज़ा बन्द करके चली गईं। मैं घूँघट में पलंग पर बैठी थी। घूँघट हटाने के बदले मनोज नीचे झुक कर झाँकने लगा। वो बोला: देख लिया, मैंने देख लिया। तुमको मैंने देख लिया। चलो अब मेरी बारी, मैं छुप जाता हूँ, तुम मुझे ढूँढ़ निकालो। वह छोटे बच्चे की तरह छुपा-छुपी का खेल खेलना चाहता था। मुझे लगा कि मुझे ही शुरुआत करनी पड़ेगी।
घूँघट हटा कर मैंने पूछा: पहले ये बताओ कि मैं तुम्हें पसन्द हूँ या नहीं?
मनोज शरमा कर बोला: बहुत पसन्द हो। मुझे कहानियाँ सुनाओगी ना?
मैं: ज़रूर सुनाऊँगी। लकिन थोड़ी देर तुम मुझसे बातें करो।
मनोज: कौन सी कहानी सुनाओगी? वो किताब वाली जो तुम पढ़ रहीं थीं वो?
मैं: हाँ, अब ये बताओ कि मैं तुम्हारी कौन हूँ?
मनोज: वाह, इतना नहीं जानती हो? तुम मेरी पत्नी हो, और मैं तेरा पति।
मैं: पति-पत्नी आपस में मिलकर क्या करते हैं?
मनोज: मैं जानता हूँ, लेकिन बताऊँगा नहीं।
मैं: क्यों?
मनोज: वो जो सुरेन्द्र है ना ! कहता है कि पति-पत्नी गंदा करते हैं!